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Thursday 20 July 2023

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इंसानी ज़रूरतों, आशा-आकांक्षाओं और मनुष्य के अस्तित्व की गहरी छानबीन करता है मंज़ूर एहतेशाम का कालजयी उपन्यास 'सूखा बरगद'

"याद आ रहा है, विजय इंजीनियरिंग के अंतिम वर्ष में है और महीने डेढ़ महीने बाद उसकी परीक्षा होने को है. सुहेल ने अभी तक अपने तीसरे साल के भी पूरे सब्जेक्ट्स पास नहीं किए हैं. उसका कॉलेज जाना कभी-कभार ही हो गया है और दिनचर्या में बहुत बड़ा फर्क आ गया है. इधर कई दिनों से अब्बू की तबीयत लगातार खराब चल रही है और इलाज-मालजे के बाद भी कोई खास फायदा नहीं. विजय और सुहेल के आपसी संबंधों में एक खास तरह का ठंडापन और फासला पैदा हो चुका है. मैं रेडियो स्टेशन पर अपनी ड्यूटी पाबंदी से बजाती रही हूं और विजय भी मुझसे मिले अक्सर यहीं आ जाता है. हम दोनों जब-तब साथ समय बिताते रहे हैं और शायद इसका पता या अंदाजा सुहेल को भी हो गया है. दूसरा कोई बहरहाल, इस तफसील को नहीं जानता. पिछले बारह-पंद्रह महीनों में कुछ अविश्वसनीय-से परिवर्तन हुए हैं…" प्रस्तुत है 2003 में राष्ट्रीय सम्मान 'पद्मश्री' से अलंकृत मंज़ूर एहतेशाम के कालजयी उपन्यास 'सूखा बरगद' से पुस्तक अंश-

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